युही कदम कदम से नापा मैंने सफ़र तेरा
न मंजील का पता था न घर तेरा
हर रोज तू बदलता गया काफिला
मैंने हर काफिले में करता इंतजार तेरा.........
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एक सुखा पत्ता हु हवा उडाले गयी,
उस डाली से पल भर में जुदा कर गयी,
थी डोर से बंधी प्रीत जो मेरी
क्यों चुनर आज मुझसे दगा कर गयी
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दियो से जगमगाया आशियाना मेरा
ना दिवाली ना कोई पर्व था
ये तो दीदार हुआ था तेरा सनम
अमावस में भी जो सितारों से सजा था आंगन
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न मंजील का पता था न घर तेरा
हर रोज तू बदलता गया काफिला
मैंने हर काफिले में करता इंतजार तेरा.........
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एक सुखा पत्ता हु हवा उडाले गयी,
उस डाली से पल भर में जुदा कर गयी,
थी डोर से बंधी प्रीत जो मेरी
क्यों चुनर आज मुझसे दगा कर गयी
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दियो से जगमगाया आशियाना मेरा
ना दिवाली ना कोई पर्व था
ये तो दीदार हुआ था तेरा सनम
अमावस में भी जो सितारों से सजा था आंगन
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ये मुसाफिर अब ये दिल तेरा ठिकाना नहीं तेरी यादो की हुकूमत अब हमको गवारा नहीं
जल कर बुझा नहीं अब तक जुल्म का आशियाना तेरा काच का महल भी अब तुझे सुकून क्या देगा
नहीं यकीन था की उस चेहरे पर भी नकाब होगा बड़ी शिक्कत से उसने फरेब के छीटे छुपाये थे
हर इंसान की तरह तेरा भी एक दिन आयेगा
हर हँसी और असू का हिसाब गिना जायेगा
कितने दिए और कितने मिले घाव जिन्दगी में
उस दिन तू क्या खुद से नज़र मिला पायेगा ??
हर मंजर पर यही दुआ रहेगी मुसाफिर को जानत में पनाह मिले
मन खुदा से तोड़ दिया रिश्ता उसने पर वो खुदा हर पल मेहरबान रहे
कर सको अपने 'कल' तो खुद से जुदा कर, दो या फिर 'कल' हमे अपनी पहन देदो .....
ये मेरी मंझील नाही ना मेरा ठिकाना था
क्यों किसी बेगाने किले बना ये फ़साना था
आज रोशन है खुदाई भी जब जुदाई का आलम था
क्यों जलते दिए के तले अँधेरे का मौसम था
किसने नहीं देखा वो लौ भी रो रही थी
बिछड़ने के गम में वो श्याम पिघल रही थी
उसकी रौशनी से भी लोगो ने आशिया सजा लिया
पर देखा ही नहीं की रौशनी के संग शमा दुआ मांग रही थी
क्या नसीब होता , क्या होती है किस्मत
कोई कहता है अमर है दिए बाती की मोहोब्बत
हर कहानी क्या ऐसे ही लिखी जाती है
हो जुदाई प्यार में तो अमर वो मोहोब्बत कहलाती है
क्या जलाओगे हमे हम खुद ही जल रहे है
मोम के बने है तेरे दर्द से पिघल रहे है
कैसे बताएँगे तुम्हे ही रोशन तुम्हे करने
हम सदियो से जल रहे है
कही राते बीत गयी पर
मिलाने का सूकून नसीब न हुआ
खुद के आशियाने का अँधेरा मिटाना
नसीब न हुआ
तुने क्यों अपना दर्द मेरे सिने में छुपाया ज़ालिम
तड़पता है तू और जलाता हु मै ज़ालिम
जल कर बुझा नहीं अब तक जुल्म का आशियाना तेरा काच का महल भी अब तुझे सुकून क्या देगा
नहीं यकीन था की उस चेहरे पर भी नकाब होगा बड़ी शिक्कत से उसने फरेब के छीटे छुपाये थे
हर इंसान की तरह तेरा भी एक दिन आयेगा
हर हँसी और असू का हिसाब गिना जायेगा
कितने दिए और कितने मिले घाव जिन्दगी में
उस दिन तू क्या खुद से नज़र मिला पायेगा ??
हर मंजर पर यही दुआ रहेगी मुसाफिर को जानत में पनाह मिले
मन खुदा से तोड़ दिया रिश्ता उसने पर वो खुदा हर पल मेहरबान रहे
कर सको अपने 'कल' तो खुद से जुदा कर, दो या फिर 'कल' हमे अपनी पहन देदो .....
ये मेरी मंझील नाही ना मेरा ठिकाना था
क्यों किसी बेगाने किले बना ये फ़साना था
आज रोशन है खुदाई भी जब जुदाई का आलम था
क्यों जलते दिए के तले अँधेरे का मौसम था
किसने नहीं देखा वो लौ भी रो रही थी
बिछड़ने के गम में वो श्याम पिघल रही थी
उसकी रौशनी से भी लोगो ने आशिया सजा लिया
पर देखा ही नहीं की रौशनी के संग शमा दुआ मांग रही थी
क्या नसीब होता , क्या होती है किस्मत
कोई कहता है अमर है दिए बाती की मोहोब्बत
हर कहानी क्या ऐसे ही लिखी जाती है
हो जुदाई प्यार में तो अमर वो मोहोब्बत कहलाती है
क्या जलाओगे हमे हम खुद ही जल रहे है
मोम के बने है तेरे दर्द से पिघल रहे है
कैसे बताएँगे तुम्हे ही रोशन तुम्हे करने
हम सदियो से जल रहे है
कही राते बीत गयी पर
मिलाने का सूकून नसीब न हुआ
खुद के आशियाने का अँधेरा मिटाना
नसीब न हुआ
तुने क्यों अपना दर्द मेरे सिने में छुपाया ज़ालिम
तड़पता है तू और जलाता हु मै ज़ालिम
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